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Abhinav Imroz Febuary 2024

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डॉ. इरादीप   कविता नहीं आसान होता इमरोज़ होना  इश्क को कैनवस पर  रंगों से सराबोर करना पड़ता है  अना को  इश्क की आग में जलाना पड़ता है  अपनी हस्ती को  महबूब की हस्ती संग मिलाना पड़ता है  मोहब्बत में  अपनी उचाइयों के कद को झुकाना पड़ता है  अपने प्रीतम से भी  प्रीत को निभाना पड़ता है  नहीं आसान होता इमरोज़ होना ।  अपने कंधों को झुकाकर  उसकी शोहरत का बोझ उठाना पड़ता है  अपनी 'मैं' को  उसकी 'मैं' में  मिलाकर हम का नया आयाम बनाना पड़ता है  नहीं आसान होता इमरोज़ होना ।   धूएँ से डर तो क्या  कुरेदी हुई राख को दबाना पड़ता है  महज जिस्म से  जिस्म की भूख इश्क नहीं होता  रूह से रूह का मिलान करवाना पड़ता है  नहीं आसान होता इमरोज़ होना ।  ********************************************************************************** बुशरा रज़ा (बेनज़ीर), लखनऊ,  मो. 9519693602 कविता मगर ये हो न सका... इमरोज़ सुनो,  आज फिर,  कुछ साँसे छाती में उलझ पड़ीं कल रात चाँद की पेशानी पर,  पसीना झलक आया- कुछ बीते सफे पलटे फिर धुआँ धुआँ हो गये एक भूले हुये साये के पुर्ज़े तरतीब से जुड़े और जुड़कर  फिर बिखर गये..