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अभिनव इमरोज़ मार्च 2024

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कविताएँ वन्दना यादव पर्वत कहता है...  इस बार जब मैं मिलने गई थी उससे वो पूछता रहा हाल, बार-बार ! कैसे बिताईं बरसातें सोंधी खुशबू जब आई माटी की बहा नदिया में पानी और घिरी घटा सुहानी जब चहचहाए पंछी, कहीं कूक सुनी कोयल की तब... सच कहना, क्यों भीग गईं थीं पलकें तुम्हारी ? उन बरसते बादलों संग याद में मेरी  क्या तुम्हारी आंखें भी बरसी थीं ? जब अलसाई सी शाम में ख़ुमारी चढ़ी थी ठिठुरन से सिकुड़ते, अपने आपको जब तुमने बांहों में भरा था गहरे कोहरे में मुंह खोलते ही भाप बन, उर्जा उड़ी थी बर्फ़ की याद में जब नदिया के ठंडे पानी को छुआ था उस ठंडी सिंहरन में, मेरे सीने पे जमी बर्फ को क्या तुमने याद किया था ? सच कहना कि जब सुबह का सूरज उगा था नया नवेला मगर कुछ कुनकुना था झुरमुट से पेड़ों के जब छिटकी थी चांदनी अकेले चांद संग बिताई थी यामिनी शाम को अक्सर सड़क पे टहल के दरख़्तों के सायों में जो गुज़रे थे पल धूप की ठिठौली जब पसरी थी पास में सच कहना क्या कभी तुमने मुझे याद किया था ? पिछली बार हवाओं की चादर पे हरी घास का तकिया लगाए मूंदी थीं पलकें कुछ पल और बादलों ने रजाई बन ढक दिया था तन इन उनिंदी आंखों ने