साक्षात्कार

साक्षात्कार


धरावाहिक (पहली किश्त)


कवि, नाटककार, कथाकार प्रताप सहगल से वरिष्ठ बाल साहित्यकार डा. शाकुंतला कालरा की बातचीत


शकुंतला कालरा: सहगल साहब, मैं आपको वर्तमान से आपके अतीत में ले जाना चाहती हूँ, जिसका प्रथम पड़ाव है बचपन। आपके बचपन को जानने की प्रबल जिज्ञासा मेरे साथ-साथ सभी बाल पाठकों को भी है। कृपया इस विषय में कुछ बताएँ।


प्रताप सहगल: बचपन किसी भी व्यक्ति के लिए एक फार्मेटिव अवस्था है। मेरी भी। हम लोग भारत विभाजन के बाद लुटे-पिटे इधर आए थे। उस समय मेरी उम्र दो साल थी। उस समय की कोई भी चाक्षुष स्मृति मेरे पास नहीं है। जो भी सुना अपने माता-पिता या अपने आसपास के लोगों से सुना, जाना। विभाजन की कहानियाँ और कष्ट सुनते हुए मैंने होश संभाला। मेरा बचपन यानी 1955 तक का समय रोहतक में गुजरा है। माँ और पिता दोनों मुसलामानों से नफरत की हद तक खफा थे। उन्होंने ही उनका घर-बार उजाड़ा, लूटा और दर-बदर कर दिया था। पिता जी गाँधी जी की कमजोरी, जिन्ना की साम्प्रदायिकता और नेहरू, पटेल की पद-लिप्सा की बहुत निंदा किया करते थे। वे कट्टर आर्य समाजी थे। इस तरह बचपन में ही मैं आर्य समाज से जुड़ा। आर्य समाज और स्वामी दयानंद का मुझ पर गहरा प्रभाव पड़ा। आर्य समाज से ही मैंने बचपन में ही प्रश्न उठाना और तर्क करना सीखा। उस उम्र में तर्क और कुतर्क का भेद भी पता नहीं था। कई बार मैं अपने कुतर्क को भी तर्क ही मानता। ईश्वर, मनुष्य और प्रकृति के प्रति जिज्ञासा भाव तभी से पैदा हुआ। हालांकि जिज्ञासा का स्तर बदल गया है लेकिन आज भी जिज्ञासा भाव मुझमें प्रबल है। थोड़ा बड़ा हुआ था तो राष्ट्रीय स्वयं संघ से रिश्ता जुड़ा। संघ के लोग ही घर से ही कुछ लोग सम्मान के साथ ले जाते थे और मुझे वहाँ खेलने का जो अवसर मिलता, वह मेरे लिए बड़े आकर्षण की बात थी। कुछ दिन संघ की शाखा का प्रमुख भी बना लेकिन ज्यों-ज्यों मेरा विकास हुआ, मैं संघ से दूर होता गया। मुसलमानों के प्रति वहाँ भी घृणा का भाव था। स्वामी दयानंद ने भी खंडन की प्रवृत्ति को ही बल दिया लेकिन ऐसा क्या था मेरे मन में, शायद प्रतिक्रिया स्वरूप या स्वयमेव, मुझे घृणा का भाव मनुष्य-विरोधी लगता था। अभी तक मेरे जीवन में कोई भी मुसलमान मित्र नहीं था। घृणा तो नहीं लेकिन सभी मुसलमानों को बचपन में मैं भी संदेह की नजर से देखता था।


रोहतक की बहुत सी स्मृतियाँ मेरे पास हैं। रोहतक का कंपनी बाग, बाग के पास ही एक तालाब और तालाब में उगे हुए सिंघाड़ों की बेलें। एक बार सिंघाड़े खाने की फिराक में मैं तालाब में उतरा और रपट गया। न जाने कैसे किनारों पर उगी मजबूत घास को मैंने पकड़ लिया और बच गया। आज सोचता हूँ यह मृत्यु से मेरा पहला साक्षात्कार था और यह भी सोचता हूँ कि डूबते को तिनके का सहारा नहीं, पूरी घास का सहारा मिला। इस दुनिया में कुछ भी तो व्यर्थ नहीं है। कमजोर सी दिखने वाली घास भी जान बचाने का सबब बन सकती है। रोहतक में पहाड़ा मुहल्ला में रहते थे हम लोग। वहाँ का मैदान, उसमें मेरे समेत खेलते बच्चे, आसपास खंडहर बने कुछ मकान, छोटी ईंटों के महल नुमाँ घर। मैदान के एक सिरे पर मंदिर, मंदिर के सामने पीपल का पेड़। यही पीपल का पेड़ हम बच्चों की शरणगाह था जहाँ हम कई बच्चे बैठे भूतों की कल्पना करते और एक-दूसरे को झूठी-सच्ची कहानियाँ सुनाते। इनमें से कई स्मृतियाँ बाद में मेरे लेखन का हिस्सा बनीं हैं। और बहुत बाद में जब धर्मवीर भारती का ‘सूरज का सातवाँ घोड़ा’ पढ़ा तो मुझे बार-बार रोहतक का यही हिस्सा कौंधता रहा। लगा कि धर्मवीर भारती के बाल-जीवन में भी कोई ऐसा ही मुहल्ला था। वहीं था कोई मुल्ला नसरुद्दीन। बहुत सारी और स्मृतियाँ हैं उस समय की। सभी को यहाँ लिपि-बद्ध करना संभव न होगा।


शकुंतला कालरा: बचपन में माता-पिता द्वारा दिए गए संस्कारों का और उनसे प्रेरक, उदबोधक कहानियों का असर बहुत गहरा होता है। आगे चलकर आपके लेखन को इसने किस रूप में प्रभावित किया?


प्रताप सहगल: मेरी माँ श्रीमती कमलेश रानी बहुत पढ़ी लिखी न थीं। मेरे पिता श्री जगननाथ सहगल भी आठवें दर्जे तक ही पढ़े थे। लेकिन इन दोनों से बाल्यकाल में जो संस्कार मिले, वे बाद के जीवन की धुरी बन गए। मेरी माँ बहुत साधारण और हद दर्जे की मानवीयता से उर्जस्वित महिला थीं। एक उदाहरण देकर अपनी बात समझाना चाहता हूँ। बात शायद 1960 या 1961 की है। हम लोग दिल्ली की एक मजदूर बस्ती कर्मपुरा में रहते थे। हमारे घर से दो घर की दूरी पर ही जो परिवार रहता था, वे मेहतर थे। मोहल्ले में उनसे राम-कलाम के सिवा किसी का उनसे कोई वास्ता नहीं। मेहतरानी गर्भ से थी और एक रात उसे लेबर पेन्स शुरू हो गए। उस घर में और कोई औरत नहीं। उसके पति दाई को लिवाने चले गए। कोई भी देख-रेख के लिए नहीं जा रहा था उसके घर। मेरी माँ को जैसे ही पता चला वे तुरंत उसके घर गईं और दाई के आने से लेकर बच्चा होने तक वहीं जमी रहीं। इतना ही नहीं, बाद में भी जाती रहीं। यूँ आज भी अस्पृश्यता बिल्कुल समाप्त तो नहीं हुई। पानी पिलाने से पहले ‘कौन जात?’ पूछने वाले आज भी करोड़ों में हैं लेकिन उस समय यह एक तरह का क्रांतिकारी कदम था मेरी माँ का। मुझ पर इस बात का बहुत प्रभाव पड़ा और कहिये कि इस तरह से मनुष्यता का पहला पाठ मैंने अपनी माँ से ही सीखा।


पिता जी अपेक्षाकृत खामोश प्रवृत्ति के थे। पढ़े कम लेकिन गुढ़े ज्यादा थे। स्थिति को भांपना और भांपकर यह बता देना कि इसके परिणाम क्या होने वाले हैं। तर्क करने में माहिर। आर्य समाज के अतिरिक्त तर्क करने की क्षमता मुझे अपने पिता से हासिल हुई। जात-पात में विश्वास था लेकिन उसके अतिवादी बंधनों को नहीं मानते थे। उनकी कुछ बातें मेरे जीवन की पूँजी बनीं। पहली तो यह कि वे रात को अक्सर सोते हुए, अगर वे बहुत थके हुए न होते, मुझे कोई न कोई कहानी सुना देते थे। छत पर सोने के वक्त ही उन्होंने मुझे भगतसिंह, ऊधम सिंह, नेताजी सुभाषचंद्र बोस और आजादी से जुड़े कई शहीदों की कहानियाँ और आजादी के परवानों के कई किस्से सुनाए।


गाँधी जी के प्रति उनके मन में आदर का भाव कम था। नेहरू और पटेल को तो वे पद-लोलुप मानते थे। जैसे-जैसे मेरी अपनी सोचने-समझने की शक्ति विकसित हुई, कुछ इतिहास आदि पढ़ा, तब उनकी बहुत सी बातों से स्वयं को असहमत पाया। दर असल भारत-विभाजन के बाद उनकी जिस तरह की मन-स्थिति थी, वे ही नहीं, अनेकानेक विस्थापित लोग इसी तरह सोचते थे और संभवतः इस क्षोभ का ही परिणाम था कि 1952 में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। राजनीति में अपनी आवाज और राय दर्ज करवाने का यह एक तरीका था। पिता जी से सुनी हुई यह कहानियाँ मेरे लेखन का हिस्सा बनीं हैं। कालांतर में मैंने भगतसिंह के बाल्यकाल पर आधारित एक नाटक ‘अंकुर’ लिखा और फिर बाद में तो एक पूर्णकालिक नाटक ‘रंग बसंती’ लिखा। इसी तरह नेता जी से प्रेरित एक कविता ‘दिल्ली चलो’ मेरे काव्य-लोक का हिस्सा बनी। नेता जी पर एक नाटक लिखने की इच्छा आज भी बनी हुई है।


पिता जी की एक और बात जिसने मुझ पर गहरा असर छोड़ा है, उसे भी एक प्रसंग द्वारा ही स्पष्ट किया जा सकता है। हम लोग दिल्ली आ चुके थे। घर में पाँचवां बच्चा पैदा हुआ। यह मेरी छोटी बहन चंद्रकांता थी। बहुत सारे लोग आज भी लड़की पैदा होने पर उदास और निराश हो जाते हैं, तो उन दिनों तो स्थिति और भी गंभीर थी। और फिर हमारे घर में पहले से ही एक लड़की मौजूद थी। पिता जी लड़की के प्रति समाज की उपेक्षा या उदासीनता का भाव जानते थे और इस बात के सख्त खिलाफ थे कि घर में लड़की पैदा होने पर कोई उदासी और निराशा हो। उन दिनों खुशी की सूचना देने का एक ही जरिया था, पत्र। या फिर तार। लेकिन तार का मतलब प्रायः लोग मान लेते थे कि कोई अशुभ समाचार है, इसीलिए तार दिया गया है। घर में पुत्र पैदा होने पर पंजाब में रिवाज था कि पत्र द्वारा यह सूचना देते हुए पत्र पर केसर छिड़क दिया जाता। अगर खबर किसी की मृत्यु की हो या कोई और अशुभ समाचार हो तो पत्र को एक कोने से हल्का सा फाड़ दिया जाता था। पिता जी पुत्री के पैदा होने को अशुभ मानने वाली मानसिकता के खिलाफ थे तो उन्होंने बेटी पैदा होने की सूचना पत्रों पर केसर छिड़क कर दी। उनके इस तरीके का परिवार में बहुत मजाक बनाया गया, लेकिन उन्होंने इसकी कोई परवाह न करते हुए सभी रस्मो-रिवाज वैसे ही निभाए, जैसे कि बेटे के पैदा होने पर निभाए जाते हैं। मेरे लिए यह एक बहुत बड़ा सबक था, जो मेरे चरित्र का हिस्सा बन गया। यानी महिला का सम्मान करना मैंने अपने घर में अपने पिता से अपने कैशोर्य काल में ही सीख लिया था।


शकुंतला कालरा: बचपन और किशोरावस्था में आप किस तरह की पुस्तकें पढ़ना पसंद करते थे?


प्रताप सहगलः पुस्तकों की संस्कृति हमारे घर में नहीं थी। पिता ही ज्यादातर उर्दू अखबार पढ़ते थे उसीमें से अपने पसंद की शायरी या दूसरी चीजों की कतरनें एक कापी में पेस्ट कर लिया करते थे। किताब के नाम पर घर में हवन विधि और संध्या आदि की ही किताबें थीं। किशोर होते-होते कुशवाहा कांत, गुलशन नंदा और इब्ने सफी आदि की किताबें पढ़ने का शौक अपने एक दोस्त वेद प्रकाश हाण्डा के माध्यम से हुआ। बाद में बच्चन, नीरज, नेपाली, प्रेमचंद, रवीन्द्रनाथ टैगोर आदि को पढ़ना शुरू किया। गीता पढ़ी, सत्यार्थ प्रकाश पढ़ा। जितना भी जो समझ में आया, मेरे अनुभव लोक का हिस्सा बनता गया। अखबारों में छपी बाल-कविताओं और कहानियों से लेकर व्यस्कों के लिए लिखी गई रचनाएँ पढ़ता था। ‘क्या आप जानते हैं’ या बूझो तो जाने आदि मेरे प्रिय स्तंभ होते थे। थोड़ा और बड़ा हुआ तो महादेवी वर्मा, प्रसाद और निराला आदि की कई रचनाएँ पढ़ीं। कामायनी मैंने नवीं कक्षा में पढ़ी थी। समझ नहीं आई, लेकिन पढ़ी। बच्चन, नेपाली, नरेन्द्र शर्मा, बालकृष्ण शर्मा ‘नवीन’ और नीरज की कविताएँ ज्यादा अच्छी लगती थीं।


 


डा. शकुंतला कालरा


 



डा. प्रताप सहगल


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