फैलते हुए सियाह हाशिए कविता
कविता
फैलते हुए सियाह हाशिए
देखे थे मैंने उन दिनों
लाहौर में
आगजनी, हत्याकांड और बलात्कार के सैंकड़ो मंज़र
सियाह पड़ते खूनी हाशिए
और मेरे बचपन में उतर गए थे
जिलावतनी के लंबे काफ़िले
पेड़ से टूटी टहनियों -सी टांगे और हाथ
डर से विस्फारित आँखें
जले हुए आदमी और ध्वस्त पड़ी इमारतें
उघड़े हुए नंगे घरों का अँधेरा और
लुटी-पुटी दूकानों का उजाड़
औरतों का आत्र्तनाद
और स्मृति गवां चुके बच्चे1
जली-सहमी दहलीज़ो और डयोढियाँ
और देखता हूँ ख़ुद को
पाब्लो पिकासो की पेंटिंग ‘गुरर्निका’ में दाखिल एक पल
निकलते-भागते दहशतज़दा दूसरे पल
दबे कुचले हाशियों पर
कौन लिख रहा खूनी लक़ीरों-सी इबारत
अब भी
कुएँ में गिरती आवाज़्ा-सी एक खलां
अब भी
कैसे हुआ कि बोलने और सुनने से नफ़ी2
उसने बुरी तरह हकलाते हुए देखा-भर3
और बयां कर दी अमानवीय यातना और त्रासदी की अकथ-कथा
रेखाओं-रंगों की सिकुड़नों में
आखि़री साँस की मर्मांतक पीड़ा
और मेरी आँखों में घूमने लगी है
सतीश गुजराल की पार्टीशन पेंटिंग की सीरीज़
चक्राकार
और मैं देख रहा
अपने गिर्द
अब भी
दम तोड़ता मंटो
और फैलते हुए सियाह हाशिए....