अभिशप्त कहानी

अभिशप्त कहानी


‘निरंजन सिंहा, तूं की कमाया, एवें जान खपायी, लोकां ने मक्सीकियां व्याइयां, गोरियां बसाइयां, पुतकुड़ियां जने-व्याहे। तूँ कलमकल्ला (अकेला) खाली-दा-खाली। भाई-भतीजे ही आरे लांदा रया। फिर आप-से-आप एक लंबी उसांस भर वह कुर्सी से उठ खिड़की के पास खड़ा हो जाता है, पर्दा हटा बाहर देखने लगता है, बाहर लॉन पर कोई पानी की नाली खुली छोड़ गया है और सारी सड़क पर पानी इकट्ठा होता जा रहा है। कोई और वक्त होता, तो आवाज दे देता। बस आज एकटक आसमान की ओर देखता रहता है, चिड़ियों का एक झुंड चांव-चांव करता आसमान से गुजर गया है। वह मन-ही-मन गुनगुनाता है, ‘पंछी चले रैन-बसेरे।‘ फिर जोर से गुनगुनाता--‘पंछी चले रैन बसेरे।‘ फिर एकाएक चुप हो जाता है। एक उसांस भर भरता है, और ‘निरंजना, तेरा रैन बसेरा बी हुण छेती आ जायेगा।‘


फ्रिज तक जाते हुए घुटने का दर्द और तेज हो जाता है। वह बीयर पीते हुए अखबार की सुखियां पढ़ना शुरू कर देता है। इधर नजर इतनी जाती रही है कि मोटी छपाई के अलावा कुछ पढ़ ही नहीं पाता। मास्टर भी तो कई दिनों से नहीं आया। उसके शहर के जान-पहचानवाले का दोहता है, जब से आया है, मास्टर की सारी जिम्मेदारी अपने पर ले ली ‘लोकीं (लोग) क्यों कलपते हैं, मास्टर दूजी व्या लाया। जट्टां के पुत्तर दूजी-तीजी नहीं व्याहेंगे तो क्या करेंगे। अमरीका हो या कनाडा, जट्ट का पुत्तर जट्ट ही रहेगा। खाए-पीए, मौज करेगा। औरत जात का क्या है, एक नहीं दो करो। जिनी देर खिला-पिला सको, जरूर करो। पहली को भी थोड़ (कमी) तो नहीं होने देगा।‘ वह क्या खिला-पिला नहीं सकता था ? क्यों नहीं गांव से कोई सुंदरसी जट्टी ले आया ? निरंजन, इधर तू कुछ ज्यादा ही सोचने लगा है। ऐसी बातें पहले तो कभी तेरे मन में नहीं आती थीं। पहले तो रिश्तेदार कहते भी रहे, वह टालता रहा। फिर लोगों के अपने ही परिवार हो गए, जितने बड़े परिवार, उतने बड़े मुंह, और ‘‘और वे कभी भर नहीं पाए।


किसी भी साथवाले को गांव से सुंदर बहू के साथ लौटते देख मन में कुछ उमड़ कर रह जाता। हौसला कुछ करने का होता, तो सामने घिर जाती रोती-बिलखती भाभी। पांच छोटे बच्चे और भाई की बिना गर्दन की लाश ! जो बातें निरंजन हमेशा भुलाए रखना चाहता है, आज वे ही बार-बार याद आ रही हैं। निरंजना तेरा वक्त करीब आ गया है, तभी तो बचपन, जवानी, अधेड़ उम्र सभी बार-बार सामने आ रही हैं। जैसे कुदरत का इशारा हो कि तेरा वक्त अब करीब है। अन्न-जल चकनेवाला है। अब भी देश लौट चल। अब भी देश लौट चल !‘


थोड़ी-सी तो जमीन थी दोनों भाइयों की। दूर के रिश्तेदार से झगड़ा हुआ, तो भाई ही तो लाठी चला बैठा था। और दूसरे दिन जब खेतों को पानी देने गया, तो लौटा ही नहीं। और फिर मिली थी, भाई की बिना गर्दन की लाश। उसे याद कर तो आज भी रोंगटे खड़े हो जाते हैं। होश आने पर वह एक ही बात दोहराता रहा था-‘भाभी, तूँ मन मत छोटा कर। तेरे बच्चे मेरे बच्चे, मैं सभी को पालुंगा अपनों से भी बेहतर।‘ अपने तो फिर हुए ही नहीं। रिश्तेदारों ने कहा भी-चादर डाल ले।‘ वही टाल गया। नहीं, ऐसा वह नहीं कर सकता। पर बरसों बाद तक जब भी कोई शादी का जिक्र करता, तो भाभी का ही चेहरा सामने आता। लाल घाघरे, नथ और चूड़ेवाला चेहरा, घूँघटवाला चेहरा, जो बच्चों के उकसाए जाने पर पंद्रह साल की उम्र में उसने उलट दिया था। लोग हंस-हंस कर लोटपोट हो गए थे और शर्म से दोहरी होती भाभी बस इतना ही कह पायी थी-‘न कर वे।‘


बीयर की बोतल जोर-से जमीन पर रखते हुए अपने को आश्वस्त करने के लिए ही वह कहता है-‘निरंजना, तू आदमी हौसले वाला है। आंखें बंद कर बस कुछ देर तक चुपचाप पड़ा रहना चाहता है। पर यह दिमाग है कि टिकता ही नहीं।


निरंजन सिंह वल्द अत्तर सिंह की जमीन की आज कुड़की है। कलयुग ‘कलयुग ! जट्टों के बच्चे मजदूरी कर रहे हैं। चादर नहीं डालेगा। रंगरलियां मनाएगा, रंगरलियां मनाएगा। रेल के लंबे सफर के बाद दिमाग में होती छुक-छुक की तरह सभी बातें बस गई हैं। छुक-छुक, कुड़की-कुड़कीकुड़की ! रेल में छिपता-छिपाता मद्रास, सिंगापुर, मैक्सिको और वहां से डिकीं में छिपाकर केलिफोनिया लाया गया था। हजार डॉलर दिए थे, उस जमाने में भी इस काम के।


साल भर पैसे भेजने के बाद भाभी का खत आया था। कैसा बौरा गया था उस दिन। बारी-बारी सभी को खत दिखाता रहा था।


निरंजन सिंह, का तो मैं पत्ता ही गलत लिखवाती रही। मैं कृतघ्न नहीं। मैं क्या जानती नहीं कि तू परदेश में कितनी मुश्किल से रोजी कमा घर पैसे भेज रहा है। अब तो बच्चे भी ठीक हैं। बड़े दोनों स्कूल जाने लगे हैं। छोटे भी हर वक्त चाचा-चाचा करते रहते हैं। उसने चिट्ठी दसों बार पढ़ी थी और बाद में तकिये के नीचे रख दी थी। और हर रोज सोने से पहले वही पढ़ता रहा था, जब तक दूसरी नहीं आ गई थी।


मास्टर नहीं आया आज भी। घर पर सभी ठीक हों ! मास्टर ही तो उस दिन कह रहा था कि लकड़ी के फर्श पर कितना गरदा इकट्ठा हो गया है और साफ दिखता भी तो रहता है। सोशल वर्कर ने ही कहा था-हफ्ते में एक दिन लड़की आएगी। सभी सफाई कर जाएगी। पहले तो वह माना ही नहीं। बाद में मान भी गया, पर लड़की का हर चीज उठाकर झाड़-पोंछ करना उसे नहीं सुहाया। खीज-खीजकर लड़ाई मोल लेता रहा। बस वह आप-से-आप अकेले रहने का आदी हो गया है। जब कोई आता है, तो उसे लगता है उसकी सीमा लांघ रहा है। कभी-कभी तो उसे मास्टर का आना भी अच्छा नहीं लगता। यह तो वह चिट्ठियां ला देता है। जब लोग आते हैं, तो उसे लगता है, उस पर तरस खा रहे हैं। जैसे कह रहे हों-यह है वो बुद्धू आदमी, जो अपने लिए कुछ भी नहीं कर सका। जब किसी के यहां बच्चा होता है, तो उसे बुजुर्ग समझकर आशीर्वाद दिलाने ले आते हैं। उसे जरा भी अच्छा नहीं लगता। जैसे उसकी हंसी उड़ा रहे हों। कह रहे हों-‘निरंजन सिंह औतरा है, औतंरा है‘‘‘औतंरा मरेगा।‘


साल बाद वाले खत में लिखा था-जीतां और सुरेंद्र अब काफी बड़ी हो गई हैं। इतनी बड़ी-बड़ी लड़कियां क्या घर बिठायी जाती हैं। बस तुम्हीं कुछ करो। जगजीत तो कुछ करने से रहा। कहता है, मेरा भाई तो पैसे कमा-कमाकर भेज रहा है। भरजाई तूने जादू कर दिया है। मुझे भी नहीं पूछता।।


तब सोचा था बार्न छोड़ देगा। किराये का मकान लेकर रहेगा, पर फिर मन मारकर बार्न पर ही टिका रहा था। बहनों की शादी के लिए पैसे भेजने के बाद खत आया था-इतने पैसों से कहीं दो-दो शादियां होती हैं ? जट्टों की शादी में तो खाने, शराब और बिस्तरों का खर्च ही मत पूछो। और थोड़े पैसे भेज सको, तो भेजो। बड़ी सस्ती जमीन मिल रही है। जगजीत भी किनारे लगा रहेगा। नहीं तो हर वक्त मेरी छाती पर मूंग दलता है। बड़ा गुस्सा आया था तब, बस सभी को पैसा चाहिए -पैसा-पैसा ! तब सोचा था, किसी के लिए कुछ नहीं करेगा। यह सभी कुछ सोच-सोचकर बेहद कडुवा गया है। पर वह तो बड़े दिलवाला था‘‘‘यह क्या हो गया है ? छोटी-छोटी बातें पहले कभी उसे परेशान नहीं करती थीं। और अब बरसों पुरानी बातें सोचने का फायदा ही क्या है ! कुछ करना था, तो हौसला कर पहले से करता। वह सोचता है, उसी के मन में गांठ थी, जो दूसरों के लिए इतना कुछ करने को मजबूर करती रही। बस वह थोड़ी वाह-वाही चाहता था और बाद में इसकी गिरफ्त में ऐसा आ गया कि निकल ही नहीं सका। कैसे बचपन में भाई से बंट्टे खेलते वक्त उसकी लड़ाई हो गई थी। भाई ने उसका सबसे सुंदर काला बंट्टा चुरा लिया था। गुस्से में आकर उसने सभी बंट्टे भाई को दे दिये थे और फिर तो बंट्टे खेले ही नहीं। अरे तेरी पुरानी आदत है, बलि का बकरा बनने की। कोई क्या करेगा।


कई बार सोचा था किसी को कुछ नहीं भेजेगा। बस यहीं कुछ जमीन-जायदाद खरीद टिक रहेगा। पर जब कभी भी पक्का इरादा करता, बस भाभी का रोता-बिलखता चेहरा सामने आ जाता। और कभी उस दर्दनाक चेहरे पर नथ-टीकेवाला चेहरा आ टिकता और वह एकदम बेबस-सा हो जाता। गोरे कैसी-कैसी गालियां भी दे देते थे। वह चुपचाप सभी कुछ सह लेता। सोचता था-निरंजन, जब चाकरी ही करनी है, तो इज्जत-मान कैसा ! उसका हाथ आप-से-आप खुरदरी बांहों पर चला जाता है, जो चालीस साल की मजदूरी के बाद पत्थर जैसी हो गई हैं। ‘पहली बार पीचे (खुर्मानी की एक किस्म) तोड़ते वक्त बांहें जगह-जगह कैसी छिल गई थीं। जगह-जगह खून निकल आया था। गोरा तब पैसे भी कितने कम देता था। और बात-बात में गाली, और निकाल देने की धमकी-तेरे पास कागज नहीं है। इमीग्रेशन-आफिस में रिपोर्ट करूंगा। पहली बार पीचों लदा पेड़ देख वह इतनी पीचे खा गया था कि हफ्तों पेचिश से पड़ा रहा था। फिर तो पीचों और खुर्मानियों की खुशबू उसकी नाक में ही बस गई थी। देखना तो चाहता ही नहीं, खाने की सोचते ही बस कै होने लगती है।


उन दिनों अपनी ही तरह के दो दोस्त और मिल गए थे। कमा-कमा कर पैसा भेजनेवाले। शाम को बार्न पर बैठ सूखी डबलरोटी और गोश्त चबाते वक्त ढेर सारे मनसूबे बांधा करते थे-घर लौटने के, हवेलियां बनाने के और सुंदर-सुंदर जट्टियों के। ऐसे में कभी कोई तान छेड़ देता -‘डोली चड़दियां हीर मारियां चीखा। देखते-देखते बाकी लोग कहींके-कहीं पहुंच गए। कितनों ने बड़े-बड़े बाग लगा लिये। कोठियां डाल लीं। एक वह, जो कुछ भी नहीं कर सका अपने लिए। अच्छी जगह रहा नहीं। बढ़िया खाना नहीं खाया, अच्छी शराब भी पी, तो गिनती की बार। एक साथी घर लौटने की ख्वाइश लिए ही मर गया। दूसरे के घरवाले आकर जबरदस्ती ले गए। बस निरंजन रह गया‘ अकेला-का-अकेला।


उस बार्न पर फूटे-फूटे बेड पर कंबल में सोते वक्त कितनी ही बार सुतली की चारपाई व रजाई की याद आयी थी। इतने काकरोच तो उसने गांव में भी कभी नहीं देखे थे। गांव का घर भी बार्न से कहीं साफ था। उस दिन एक काकरोच देखकर सोशल वर्कर कह रही थी-इन्हें मारनेवाले आ जाएंगे। उसने ही मना कर दिया था। यह समझती नहीं, निरंजन सिंह और काकरोच का पुराना साथ है। कोई कह रहा था-जब बाकी सभी कुछ नष्ट हो जायेगा, तब भी काकरोच का राज रहेगा। काकरोच निरंजन सिंह से पहले भी था और बाद में भी रहेगा। वह पागल-सा हो गया है। वह गांव में गर्मियों में छिड़काव के बाद उठती मिट्टी की सोंधी खुशबू के लिए अकुला उठता है। यहां की साली मिट्टी भी कैसी है-पानी डालो, तो चिपचिपा जायेगी, खुशबू नहीं देगी।


तब सोचा था- रहना बार्न पर है। चाकरी करनी है। दूसरों को पैसे भेजने हैं घर, तो मन में किसी बात की ख्वाइश ही कैसी! छोड़ मन, माया, मोह, निर्लेप हो।


सालों बाद वाला भाभी का खत उसे याद है-निरंजन, तुझे देखने को बड़ा मन करता है। अब की बैसाखी को काके की शादी है, जरूर आ। काका भी क्या सोचेगा, कैसा चाचा है आया ही नहीं। भाभी को, या बाकी सभी को देखने की इच्छा जाग उठी थी, तो वह टिकट कटा घर पहुंच गया था। गांव तो कैसा बदल गया था। कितनी हवेलियां बन गई थीं, उनके अपने घर की हालत कितनी सुधर गई थी। भाभी अलबत्ता काफी रुतबेवाली हो गई थी। और वो कभी चूड़े, नथवाली और कभी रोती-बिलखती भाभी को ढूंढने की कोशिश करता रहा था। और भाभी इन दोनों में से कुछ भी न होते हुए बेहद समझदार, रुतबेदाली और हर चीज की कर्ता-धर्ता बन चुकी थीं। भाभी उसके लौटने से बेहद खुश थी, पर किसी भी बात पर नोंक-झोंक समझ उसे तीखी नजरों से भी देख लेती थी। भाभी दूध-मलाई, मक्की की रोटी और साग खिलाने की जिद करती रही थी और सूखी डबलरोटी खाने वाला वह कुछ भी नहीं पचा पाया था। गुरु ग्रंथ साहेब के पाठ के वक्त वह घंटों जमीन पर नहीं बैठ पाया था। यहां वह चाहे मजदूरी करके ही पैसे कमाता रहा हो, पर कुर्सी पर बैठने की आदत डाल गया था। यह सब सोचते वक्त उसके हाथ आप-से-आप जुड़ जाते हैं। वह कह उठता है‘वाहे गुरु जी, बाबा जी बेअदबी माफ तेरा नां जमीं ते की लित्ता कुर्सी ते की लित्ता, इको गल है।‘ भतीजे उसे देख कुछ हद तक शर्मिंदा हुए थे। सोचा होगा, अमरीका में रहनेवाला चाचा पूरा अंग्रेज होगा, फटाफट अंग्रेजी बोलेगा, हंसी-मजाक करेगा। उसकी जगह पहुंचा था पैंतालीस साल का पके बालोंवाला सीधासाधा आदमी, जो पैट-कमीज पहनने और थोड़ी-बहुत अंग्रेजी बोलने के बावजूद उन्हें ज्यादा प्रभावित नहीं कर पाया था। भाभी को बार-बार याद दिलाना पड़ा था कि वह जो कुछ है, उसी की वजह से है। भतीजे नाराज हुए थे, जब उसने कहा था कि सफेद पैट-कमीज पहनकर बाबूगिरी होती है, अफसरी होती है, खेती-बाड़ी नहीं।


उसके हमउम्र जरूर उसकी कहानियां सुनकर प्रभावित हुए थे, कैसे पूछते रहे थे-‘निरंजन सिंहा, तेरी औत्थे हजारों एकड़ जमीन होयगी। किनी कोठियां ने ? गोरियां कैसी होंदी हैं ? तेरे आगे-पीछे फिरती होंगी? सुना है, काले उन्हें बड़े पसंद आते हैं, खासकर जट्ट‘ और वह चाहकर भी नहीं कह पाया था कि वह लोगों के बागों में काम करता है और उसके पास कहने को भी एक बीघा जमीन नहीं, और कि वह बार्न पर ही रहता है। यह तो गनीमत थी कि उसके गांव का कोई युवक सिटी में नहीं था। बाद में तो कुछ लोग आ भी गए थे। फिर तो वह गांव गया ही नहीं। बहनें ताने देती रही थीं-हमारे बच्चे क्या तेरे कुछ नहीं लगते, उनके लिए भी कुछ कर। पर लौटते वक्त वह सभी पैसे भाभी को ही दे आया कि सभी की जरूरत देख बांट देना। उसे लगा था, एक वही है, जो उसका दुख-दर्द जानती है। आते वक्त रोयी भी तो कितना थी ! कितना नाराज हुई थी अपने बच्चों पर। एक बार दबी जबान से यह भी कहा था-‘निरंजन, तू अब शादी करवा ले, सभी कहते हैं कि मैं अपने लालच से तेरी शादी नहीं होने देती। वह कह गया--अब इस बूढ़ी उम्र में क्या घोड़ी चढूंगा ? अब तो बच्चों की शादियां होंगी।‘


पैसों की मांग कभी कम नहीं हुई। कभी किसी की शादी के लिए, कभी ट्रैक्टर के लिए और कभी मुकदमे जमानत के लिए। वह क्या समझता नहीं ! भाभी अपनी आंखों के इलाज के लिए अलग पैसे मंगवाती है और उसी भाभी के इलाज के लिए भतीजे अलग पैसे मंगवाते हैं। वह सब समझता है और चुपचाप सभी को पैसे भेज देता है। उसका तो मन ही मर गया है। ‘वाहे गुरु जी, वाहे गुरु जी‘ कहते हुए वह गुटका उठा पाठ करने की कोशिश करता है। जब बंता और मलका थे, तो तीनों मिल कर पाठ किया करते थे। बंता बिचारा तो अपने बाग-खेत और मुल्क की ख्वाइश लिए ही मर गया। मलके को रिश्तेदार ले गए बड़ा मौजी आदमी था। कहता था-निरंजन को एक बीयर दो, तो मौज में आएगा, दो पीकर हो हल्ला करेगा, तीन पीकर तो उसे औरत चाहिए।


हां, पहले तो कभी-कभार वह ऐसी-वैसी जगह चला भी जाता था। भूख भी मिटा लेता था, पर जब से वीरे की मौत उस बीमारी से हुई और उसने वीरे के हाथों-बाहों पर हर जगह उस रोग की छाप देख ली, फिर वह वहां जा ही नहीं सका। लोगों ने समझाया भी-‘निरंजन, तू ऐसे ही फिकर करता है। शहर के अच्छे-अच्छे लोग भी उन्हीं के पास जाते हैं। वह रोग क्या अब बेइलाज रह गया है ! और अब तो कानून ही इतने सख्त हैं कि उन बिचारियों को भी बराबर डॉक्टरी जांच करानी पड़ती है।‘ पर वह फिर जा ही नहीं सका।


कई मक्सीकियां तो उस पर जान देती थीं। मरिया कैसी सुंदर थी ! सुंदर सुडौल टखने, काली आंखें, काले बाल ! पहली बार जब बार्न पर आई, एकदम घुलमिल गई। उसके साथ सब कुछ के बीच कभी-कभी भाभी याद आ जाती। कैसी अजीब बात है। ऐसी-वैसी औरतों के पास जाते वक्त कभी भाभी की याद नहीं आती थी। वह उसे लेकर न जाने क्या-क्या सोचने लगा था। मगर बाद में एक दिन मरिया बोली थी-‘मैं बार्न पर नहीं सो सकती। कितने काकरोच हैं यहां।‘ उसने सोचा था, मरिया से शादी का मतलब है, बस यहीं का हो जाना। फिर कभी देश न लौट पाना। और बाद में तो उसकी शादी अनटोनियों से हो गई थी।


निरंजन का मन आज बस भटक ही रहा है। कहीं-का-कहीं पहुंच रहा है। कभी बचपन की कोई बात याद आती है, तो कभी कोई जवानी की। पिछली बार कोई कह रहा था क्यों अपनी जात खराब कर रहा है। यहां ? तेरे भतीजे वहां अफीम-गांजा सभी कुछ करते हैं। तेरे पैसे पर ऐश करते हैं ऐश !‘ उसी ने कहा था-‘बच्चे मेरे होते ऐश नहीं करेंगे, तो कब करेंगे ?‘ न जाने क्या बात है, अपने पर वह कभी कुछ खर्च नहीं कर पाया। बहनों को भी कुछ नहीं भेजता, जैसे वाहे गुरु का शराप है कि उसकी इस उम्र की सारी कमाई भतीजों के नाम है। कभी कोई फिजूल खर्ची नहीं की। इस उम्र में भी टैक्सी नहीं लेता। बस में ही सफर करता है। यह तो मास्टर जबरदस्ती यहां उठा लाया। कहता था-चाचा, सारी उम्र तो गली-सड़ी जगह बिता दी। कम-से-कम मर तो साफ-सुथरी जगह। मरने का क्या है ! मिट्टी में मिट्टी मिल गई, मिट्टी का क्या मान !‘


शायद मास्टर नाराज हो गया है। उस दिन कहने लगा-चाचा, तू वसीयत लिखवा दे और पांच-छह सौ डॉलर जमा करवा दे। तेरा नजदीकी मैं ही हूं। नहीं तो सभी कुछ मुझे करना पड़ेगा।‘ निरंजन सिंह ने जीते जी अपने पर कुछ खर्च नहीं किया और उसके मरने पर उसकी लाश पर छह सौ डॉलर ! यह बात उसके दिमाग में नहीं बैठ रही थी। उसने सोचा था, पारसी लोग अच्छे हैं, जो लाश को चीलों-गिद्धों को डाल देते हैं। कुछ तो फायदा हुआ। कौन मरी जान के पीछे छह सौ लगाए। तब उसने सोचा था, मरने के लिए गांव ही क्यों न चला जाए ! फिर सोचा था, नहीं, वह किसी का मोहताज नहीं होगा। अपने वतन से तो उसका अन्न-पानी बहुत पहले का छूट गया है।


फिर उसने पता लगा लिया था कि जिनका कोई वली-वारिस नहीं होता, उन्हें जलाने का काम सरकार कर देती है। एक दर्द सा उठा था। उसका वली-वारिस नहीं ! फिर निर्लेप भाव से उसने अपने को समझाया था-देह का क्या, दोस्त रिश्तेदार न जलाएं, सरकार जला दे। मास्टर दुखी हुआ था। कहने लगा था-‘चाचा मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। तू अपने लिए कुछ नहीं करता, तो न कर। मैं खर्च करूंगा।‘ यह सुनते ही वह आगबबूला हो उठा था। कह उठा था-‘मैंने जीते-जी किसी का अहसान नहीं लिया, मेरे मरने पर कोई मेरे लिए कुछ नहीं करेगा। मेरा कोई रिश्तेदार-दोस्त नहीं, सरकार चाहे मेरी लाश को जलाए, दफनाए या चीलों कौवों को डाल दे।‘


मास्टर दुखी हुआ था। कह रहा था-‘चाचा, तेरे दिल का भी कुछ पता नहीं। कुछ लोगों के लिए तू बादशाह और कुछ लोगों के लिए तू फकीर ! बहनों को तू फूटी कौड़ी नहीं भेजता, अपने पर तू दस डॉलर नहीं खर्च कर सकता। यहां किसी को तू एक बीयर पिला कर राजी नहीं। उस दिन मैंने कह दिया, तेरे पास काफी जगह है। मेरा एक दोस्त कनाडा से आ रहा है, क्या तेरे पास ठहर जाए ! तू एकदम मुकर गया। कहने लगा, यह अमरीका है। यहां कोई क्यों किसी के पास ठहरे। होटल-मोटेल किस लिए हैं !‘


उसके देखते-देखते सारा शहर बदल गया है। पंजाबियों का ही राज है। कितने बाग-कोठियों वाले हो गए हैं। गुरुद्वारा कितना अच्छा हो गया है। कितने अमरीकी सिख पंथी हो गए हैं। कितने पंजाबियों की गौरी और मैक्सिकी बीवियां हैं। बच्चे के से अंग्रेज हो गए हैं। कैसी साफ अंग्रेजी बोलते हैं। कितनों के तलाक होने लगे हैं ! वाहे गुरु जी, कलयुग है कलयुग, जट्टों की लड़कियाँं अमरीकियों के साथ रह रही हैं।


तभी मास्टर आ जाता है-‘चाचा, तेरी चिट्ठी आई हैः ‘‘और चाचा, ये मेरे बड़े अच्छे दोस्त हैं। बॉस्टन से आए हैं।‘ चाचा बड़ा खुश हो जाता है और हर रोज से ज्यादा दरियादिल होते हुए कहता है‘इन्हें बीयर पिलाओ, नशा-नुशा कराओ। फिर भाई काका, चिट्ठी तो सुना।‘


मास्टर कहता है-‘चाचा, तेरी बहू सुनाएगी।‘


चाचा देखता है कि पहले की सीधी-सादी बहू की जगह फैशनेबुल कटे बालों वाली चुस्त बहू बैठी है, जो रुक-रुक कर बड़े सलीके वाली पंजाबी में खत पढ़ रही है


त्वाडा खत मिल गया सी, पैसे वी चन्नो दा व्याह ती तारीख दा सी, पर ओदे सौरे दा भ्रा गुजर गया है।। हुण शादी अगले साल ते टल गई है। सब कुछ त्वाडी मरजी मुताबिक कीता जाएगा। अपनी सेहत दा खयाल रखना। फसलां ठीक ने, ट्रैक्टर खराब सी, हुण ठीक है।‘


मास्टर खीजता है। इसी शादी के लिए तीन बार पैसे मंगवाए जा चुके हैं और हर बार शादी टल गई है।


निरंजनसिंह बस इतना ही कहता हँू-‘सब रब दी माया है। उसकी लिखी किसने टाली। बस जी, अपने दोस्तों की खातिर करो। इनको सेक रोमेंटो दिखाओ, गोल्डन गेट दिखाओ, मैरिसविल दिखाओ।‘


मास्टर हंसते हुए कहता है-‘चाचा यहां की सबसे नायाब चीज तू है। तुझे देख लिया, तो समझो सभी कुछ देख लिया।


- यू.एस.ए.



 


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