पारो धरावाहिक उपन्यास

धरावाहिक उपन्यास


पारो (प्रणय, प्राण और  प्रारब्ध)


सोलहवीं किश्त


...पंद्रहवीं किश्तः में आप ने पढा- ... पारो अपने और रायसाहब के रिश्ते के बारे में विश्लेषण करती है, उसे तरस भी आता है, उसका मानना है कि अगर मैं सारे राग द्वेष छोड़ कर भी रायसाहब को देखूं तो भी उसे रायसाहब के कई रूप नजर आते हैं। उधर देवदास उससे आत्मदान की प्रार्थना करता है, पारो इस द्विविधा में जी रही है कि वह किसकी बन कर जीए। रानी माँ ने आम माओं की तरह कभी यह नहीं जताया कि कहीं मुझे में ही कोई कमी रही होगी कि मैं रायाहब को अपना नहीं बना सकी......


 


अब आगे- समय-समय की खदेड़-उपेक्षा सहते-सहते व्यक्ति एक दिन कुंद हो जाता है। यहाँ तक कि उस की चेतना शक्ति भी ग्रसित हो जाती है बाहर की अनन्य पुकारों की ग्लानि से। जीवन में एक बार आप अपदस्त हो गये तो दुनिया कभी आपको माफ नहीं करती। आप भूलना भी चाहें-तो दुनियां भूलने नहीं देती। इसी भूल-भूल्लैया को शायद जीवन कहते हैं। यों अपदस्थ होने में व्यक्ति से अधिक क्या उस के भाग्य का हिस्सा ज्यादा नहीं होता? यह सोच -सोच कर भी उसे इस हाथी जैसे प्रश्न का उत्तर नहीं मिलता। लोगों की फब्तियों के नीचे आप का अपना विश्वास भरा व्यक्तित्व भी शंकायों से घिर जाता है। ठीक और न ठीक के बीच की समतल रेखा वक्र हो जाती है और आप के लिये आर-पार देखना कठिन हो जाता है।


कुछ ऐसा ही हुआ था। न जाने कितनी चिरौरियां और मनौतियाँ करनी पड़ी थीं-उस को अपनी शतदल सी नाक रखने के लिये-जो रोज कटती है और फिर उगती है-वैसी की वैसी-पर उस की भरसक कोशिश रहती है कि नाक बची रहे। उसके पीछे लगी हुई बददुआयों की झड़ी थी या शंकायों का सिलसिला जो उसे जीने नहीं दे रहा था।


उसके मन की रंगीन चाहते कहीं मन के गलियारों में भटक कर लौट आती हैं। पतझड़ की पगडंडियों पर झूल कर धाराशायी हो जाती हैं। वह क्या करे-क्या न करे। यों यह लड़ाई उसकी नितांत अपनी है-अपने अंर्तमन से। बाहर तो उसकी परछाईं तक नहीं है। अन्दर की आग से निसृत धुँआ-बाहर दृष्टिगत नहीं होने देती वह।


उसमें यश-अपयश उसका नहीं है-केवल उसके मन का है। मन की हार या मन की जीत की शतरंज बिछी है और हाथ-पांव मन सब गलत गोटियां चल रहे हैं-जिस में शह भी है और मात भी-पर जीत नहीं है।


रोज सूरज उगता है, रोज डूबता है। दिन चढ़ता है और गोधूलि पर पांव रख कर तिरोहित हो जाता है पर हाथ में पकड़ी जिंदगी की अलगनी पर कुछ भी टिका नहीं रह जाता है। सब फिसल गया है। सीता के बालों की लकीरें राम के हाथ में छूट जाती हैं और किसी अदृश्य होते वुजूद की सलवटें सदा के लिये अमिट रह जाती हैं।


जब शरीर अनुपलब्ध होता है तो हम एक भावना से प्यार करते हैं और एक अमूर्त कल्पना के आसपास-अपना स्वपन जाल बुनते हैं और बुनते चले जाते हैं। धीरे-धीरे हम उसी को साक्षात-यथार्थ मान लेते हैं और उसी में जीवित रह कर अपने आप को सन्तुष्ट कर लेते हैं क्योंकि कल्पनायों पर तो पहरेदार नहीं होते न!


तुम ठीक कहते हो देव! मुझे जिंदगी के द्वार तक स्वयं ही पहुँचना होगा। जिंदगी में रह कर हम जिंदगी का हाथ कैसे छोड़ सकते हैं। ये तो बेपंख होकर उड़ना हुआ न! कभी-कभी अपना हाथ ही पकड़ना होता है आगे बढ़ने के लिये। सोचती हूँ क्या मैं रायसाहब से भी अधिक असहनशील हूँ या ईषालूं हूँ या मेरा हृदय इतना संकीर्ण है कि उनके अतीत को ओझल नहीं कर सकती। उनके अतीत हुये प्रेम को प्रश्रय नहीं दे सकती हूँ। मैं मानती हूँ कि पहला प्यार कभी नहीं मरता या शायद यह भी ठीक है कि प्यार एक बार ही होता है। पहले मैं नहीं मानती थी पर आज मानती हूँ कि प्रथम प्रेम चाहे फल्लीभूत न हो फिर भी अन्दर ही कहीं जम कर बैठा रहता है। चाहे उस का अंत


घृणा के साथ हो, द्वेष के साथ या विवशता के कारण। हम ऊपर से दुनियां ओढ़ लेते हैं और इस ओड़न के नीचे सांस लेते रहते हैं पर एकांत क्षणों में हम निर्वस्त्र होकर अपने प्यार के सामने खड़े होकर उन बीते क्षणों की भीख मांगते रहते हैं। शायद यह सब के साथ होता है और होता रहेगा। उस के बाद हम किसी अन्य का हाथ पकड़ कर भी खाली-खाली लटकते चले जाते हैं। हथेलियाँ हमारी भी होती है पर वे खाली और हारी हुई होती हैं। पर जो नहीं है-उसे पूरा प्राप्त कर लेने का हठ भ्रम है, इसी भ्रम में जी रही हूँ-या जीना चाहती हूँ...।


प्रेम में प्रार्थना और मन निहित होता है। दो लोगों का एक हो जाना पति-पत्नीत्व कहलाता है-जिस मंे उत्तरदायित्व एवं निभाने की सायसता आ जाती है और प्रार्थना और मन का विलोप हो जाता है। वह केवल संबैधानिक विधान होता है, बाहर से भरा अन्दर से खाली, टकराय तो टूट जाये और भा जाये तो स्वर्ग।


यों भी मैं तो एक अधूरी पहली हूँ जिसके जीवन के दोनों तरफ पहेलियाँ हैं-अनुबुझी पहेलियां। जिसकी अपनी पहेली सुलझी नहीं थी कि नये अष्टांग में अंगुलियाँ पूर्णतयः उलझ कर रह गई।


मुझे अपने भाग्य पर अभिमान भी है कि मुझे रानी माँ जैसी सहिष्णु और विशाल हृदया सासू मिली हैं।


देवदास को दिवंगत हुये अधिक समय नहीं बीता था कि धीरे-धीरे एक धुँआ सा संदेह चारों ओर फैलने लगा था। आसपास-आपस में मुँह-जोड़ने की बतकही, यहाँ-वहाँ उड़ने लगी थी। देव का यहाँ आना मेरा सब से बड़ा कलंक हो गया था। किसी को कुछ भी स्पष्ट नहीं था कि देव के साथ मेरा कोई संबंध था पर देव की जेब से निकला कागज का पुरजा चैधरी भुवनशोम की गाथा कह गया था- गाँव समेत। उसी गाँव का मेरा पीहर, भुवनशोम की कोठी से सटा हमारा घर-उन सब के बीच धीरे-धीरे संदेह के बीज पनपने लगे थे। पहले दिन रानी माँ ने ही पूछा था-क्या तुम भुवनशोम के किसी देवदास नाम के बेटे को जानती हो!


मेरी विस्फारित आँखें छिप कर भी छिप नहीं सकीं। और मैंने ‘हाँ’ में सिर हिलाया था। वह हमारे पड़ोसी है। झूठ नहीं बोल सकती थी। रानी माँ ने मुझे-आँख भर कर देखा और सहानुभूति से ओत-प्रोत होकर कहा-हाँ पार्वती! दुःख तो तुम्हें भी बहुत होगा- आखिर तुम्हारा पड़ोसी था और मैंने माथे के पल्ले को आँखों पर झुका कर अपनी सिसकी अन्दर ही दबाकर गर्दन हिला दी थी। उस दिन मेरे अन्दर कितने कांच के महल छिन्न-भिन्न हुये, कितने सूरज बुझे, कितने चाँद-अमावसी हो गये, कितने तारों की बारात लौट गई और कितनी सांसे गले में अटकी, कितने आंसू बरौनियों से लौटे; कितने आंसूयों के घूंट अन्दर घुटके-मुझे याद नहीं। मैंने आने वाली आंशकायों के समक्ष घुटने टेक दिये।


सोचा अब ये लड़खड़ाते पांव, ध्वस्त धड़कने कहीं भी ले जायें-जाना होगा। वह गन्तव्य क्या होगा और कहाँ ले जायेगा उस से कुछ भी अंतर पड़ने वाला नहीं था। हवा ने अपना गन्तव्य शायद तय कर लिया था। तूफान ने अपनी दिशा संभाल ली थी। अब तो केवल कपाट बंद किये जा सकते थे-जितनी बोछार झेलनी है वह तो बंद-कपाटों में भी झेली ही जायेगी। अब इस से कोई निजात नहीं है। और पारो! लड़खड़ाती लटकती अपने कमरे के कपाट बंद कर पलंग पर ढह गई थी। उस दिन आँखों की बरसात से सागर उछले या घर डूबे, उसे कुछ याद नहीं।


किनारे धों पौंछ कर अपनी सीमा में लौट आये थे दूसरे दिन....। जिन घावों से कोई निजात नहीं मिलती समय स्वयं ही मरहम बन कर उन पर बिछ जाता है और व्यक्ति के सहने की आंतरिक शक्ति दे देता है।


फिर धीरे-धीरे यह धुँआ छटता गया था और सच्चाई अपना मुँह उघाड़ कर एक दिन सामने आ गई थी।


यह सच्चाई लेकर सामने आये थे जमाई राजा प्रमोद! कानों-कान से होती हुई-हर जबान पर आ गई थी। रानी माँ की ओर से मेरी उपेक्षा या मेरी ओर उन की उदासी इसको ढक नहीं पाई थी। तूफान सामने था और उसे झेलने वाला भी तैय्यार था। मैंने भी सिर पर कफन बांध लिया था।


रायसाहब से भी सामना हुआ-तुम देवदास को जानती थी-पार्वती।


जी!


कितना जानती थी।


जितना एक पड़ोसी-दूसरे पड़ोसी को जान सकता है।


इतना ही या उस से कुछ ज्यादा।


ज़्यादा-कम का माप दंड होता है क्या ?


पार्वती तुम कुछ छुपा रही हो।


इतना नहीं जितना आप ने छुपाया।


क्या कह रही हो।


इस का उत्तर-आप के पास है।


रायसाहब हतप्रभ हुये और कहीं झुके भी पर सामंती अहं टकरा गया।


हम सामंती रजवाड़े हैं। बड़े घरों में यह सब चलता है।


मैं मानती हूँ....


पर छुपाना तो नहीं चलता न...।


तुम्हारी माँ ने ही कहा था कि तुम्हें अभी कुछ न बताया जाये।


तो आप ने यह निर्णय ले लिया और मुझे पहले ही दिन नकार भी दिया। फिर आप को आज मेरा सच क्यों खल रहा है।


ऐसा सच किसी को भी खलेगा पार्वती!


स्त्री-पुरुष की सच्चाईयों की गरिमा क्या अलग-अलग होती है!


एक तरफ के सच को मान लेना चाहिये और दूसरी तरफ के सच की भत्र्सना करनी चाहिये।


तुम किस बूते पर यह विवाद कर रही हो।


यह बात किसी विशिष्ट अस्तित्व या बूते की नहीं एक-साधारण सिद्धांत की है।


तुम किसी से प्रेम करती थी, जानती हो यह कितना बड़ा अपवाद है-


आप भी तो आज तक अपनी पत्नी से प्रेम करते हैं।


पर वह मेरी पत्नी थी।


हमारे प्यार के बीच हमारे प्यार की पवित्रता थी। मुझे उस प्यार की कोई ग्लानि नहीं है बल्कि वह आज तक मेरी शक्ति है।


पार्वती! तुम कैसी बातें करती हो यह अवैध है।


अवैध!


हाँ! जायो! मुझे इस विषय में और कोई बात नहीं करनी।


आप सच्च से कन्नी काट रहे हैं-


नहीं। स्वयं को समझाने की कोशिश कर रहा हूँ और दोनों दालान के अलग-अलग छोरों की ओर मुढ़ गये थे।


पारो! कमरे में आकर औधे-मुँह पलंग पर गिर गई थी। आज सारी दीवारें भरभरा कर जैसे उसे धाराशायी कर गई थीं।


आज पारो सोच रही थी-कौन सा अभागा क्षण था जब मैं भी अपनी माँ की सोच के साथ बह गई थी। कैसे नहीं-मैं सिर उठा कर खड़ी हो सकी और अपने प्यार की डोर से बंधी रह सकी।


देवदास ने कितनी मिन्नतें की थीं-पारो! अब भी मना कर दो। पर वह न जाने किस अहं में तनी-खड़ी रह गई थी। आज उसका वह देवदार जैसा सीधा-ऊँचा खड़ा अहं मिट्टी में मिल गया था। अब रायसाहब जो भी निर्णय लें-आजन्म देवदास की होकर जी सकती हूँ। मुझे इन दुनियाई-सामाजिक-छदम दीवारों की ओट में छुपकर नहीं जीना है। प्रेम है तो है। मैं उसे क्यों छुपाऊँ। उस से मेरा सर नीचा नहीं होता। शायद प्रेम को न पा सकना ही उसकी  प्रकाष्ठा है। मैं उसी बुर्ज पर खड़ी हूँ। यह ताम-झाम यह रईसी बुलन्द कोठी की महलनमुमा दीवारें मुझे कोई ऊँच्चाई नहीं देती। शायद मैं उस चैखटें में फिट भी नहीं बैठती।


पर अन्दर से पारो आहत हुई थी। कैसे एक क्षण में वैध और अवैध का निपटारा हो जाता है। रायसाहब ने अपने पुरुषत्व के अहं में अपने प्रेम की बुलंदी से हुंकार भर कर स्वीकारा और मेरे प्रेम को - नकरा ही नहीं-बल्कि किसी तरह की अहमियत तक नहीं दी। केवल दो जनों के सामाजिक बंधन से प्रेम वैध हो जाता है और बंधन के बिना अवैध। वही भावनायें, वही शरीर, वही सौन्दर्य-वही कोमल-भाव-देवत्व की उच्चाई- वही तो होता है सब कुछ फिर भी एक वैध और दूसरा अवैध। उनकी पत्नी की छुअन पवित्र और देवदास की मुग्ध चितवन पाप।


पारो सोचती है-हम किस दुनियां में जी रहे हैं। किन मूल्यों को ढो रहे हैं। मानवता की पहचान किये बिना झूठी मानवीयता का ढिंढोरा पीटते-पीटते जीवन स्वाहा कर देते हैं। क्या है यह गोरख-धंधा-क्या है यह मनुष्य की बनाई छदम चार-दीवारियाँ जिन्हें जब चाहे अपनी इच्छा से बना लो और अपनी इच्छा से ढा दो! बड़ा आदमी हो तो दीवारें स्वयं ही पिघल जाती है और एक साधारण-आदमी के लिये वही लौह-कारा बन जाती है।


मेरी धुरी एक घर के खूंटे से बंधी है, समाज की बनाई बाड़ में अटकी है तो दूसरी तुम्हारे साथ-देव पतंग जैसे कट कर किसी पेड़ से लटक जाये....। मैं तो पतंग बन कर उड़ना चाहती थी पर खूंटी से बंधी डोर खिंच जाती है। स्वप्न लोक में तुम मेरे हो पर सपनों की दुनियां का कोई घर नहीं होता। स्वप्न लोक त्रिशंकु की तरह बीच वायुमंडल में जैसे डोलता है वैसी ही मैं डोल रही हूँ। कभी इधर खिंची तो कभी उधर।


बीते हुये कल और बह गये पानी को हम छू नहीं सकते। एक बार बीता-बहा-तो बीता और बहा-बस हम उसे केवल  अपने से दूर जाते देखते रह सकते हैं। पकड़ मे कुछ नहीं आता। हाथ से थिरे-पानी की तरह खाली हथेली ही हाथ आती है।


जीवन में सब तारे तोड़ लाने का दंभ भरते हैं-कोई लाया भी आज तक तारे तोड़कर। सब की झोली भर जाने की हामी थी- भरी क्या! क्या पूरी हुई। यह सब एक दौड़ है। कुछ पाने के लिये और फिर कहीं न पहुँचने पर भूल जाने के लिये। सब पाना चाहते हैं पर उतनी ही शिद्दत से खो भी देते हैं। सब जागते हैं, सब सोते हैं। नया क्या है जिस के पीछे हम रोज दौड़ लगाते हैं। कोई न कोई मृग तृष्णा हमें दौड़ा रही हैं, सत्य क्या है-बहुत बड़ा भ्रम है। मेरे लिये जो सत्य है-हो सकता है दूसरे के लिये वह केवल भ्रम हो। पर हमारी दौड़ कम नहीं होती। आदम-हब्बा के जमाने से या उस से भी पहले से हम दौड़ रहे हैं बिना अपने अन्दर झांके! क्या पता हमारी मंजिल हमारे ही अन्दर मील-पत्थर की तरह गढ़ी हो और हम बाहर भटक रहे हो.......


 



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